ते, हो रहा गुलजÞार ।।
मंदिर ऊपर छत और मंदिर का सुनहरा शिखर ।
कितना आकर्षक घरों के कारण, अहा ! सुंदर शहर ।।
मजदूर, बढ़ई, मिस्त्री, चित्रकार और सुनार ।
सबका साझा, सबका अपना, प्यारा पोताला दरबार ।।
घर की छत, पन्ना के दाने, ध्वज एवं विहार ।
किया, खूब किया, ल्हासा ने यमि का सत्कार ।।
राह, डगर जहाँ तहाँ उतना ही आकर्षक ।
चेहरे पर नूर ल्हासा की कन्या शरीर है मादक ।।
उनके ही मध्य जैसे गिरा हो श्वेत में पीला ।
लेकर चलता बंजारा नेवार चमड़े का झोला ।।
वृद्ध वृद्धा जपते हुए चलते ‘ॐ मा ने पे मे हँु’ ।
घुमा घुमा के मानो लगता है कहता “पाप ना करूँ” ।।
कोठरी में पहुँच आराम करते खुश मन में जागी आशा ।
यमि ने कहा “देवभूमि ही है यह ल्हासा” ।।
द्वितीय सर्ग
ल्हासा का परिच
११
भोटिनी स्त्रियाँ कितनी हँसी दिल्लगी करने वाली यमि की पड़ोसी ।
आसानी से बोलना सिखाया भोटिया बोली ।।
खानपीन कपड़ा–लत्ता लगाना आदि वहाँ का चलन ।
सिखाया रसोई घर की माँ ने ल्हासा का रहन–सहन ।।
ल्हासा की भाषा, चाल–चलन शीघ्र ही जाना ।
व्यापार में भी ग्राहक को उसने ताना ।।
खाली वक्त मन ही मन वह करता हिसाब ।
समय कभी बर्बाद न करता और पढ़ता वह हिंदी किताब ।।
पत्र–पत्रिका, दैनिक, मासिक रोजÞ–रोजÞ पढ़ने लगा ।
अंग्रेजÞी भी टूटी–पूmटी वह बोलने लगा ।।
प्रयत्न करने से सब संभव है जो भी देखो करके ।
नौकरी भी दिखा दी उसने अच्छी तरह करके ।।
राजनीति और समाज नीति, धर्म और दर्शन ।
इतिहास और भूगोल का ज्ञान, साथ ही विदेश भ्रमण ।।
साहित्य भी थोड़ा–थोड़ा उसने जाना ।
प्रबुद्ध भिक्षु, लामा जी को उसने गुरु ही माना ।।
चार–पाँच साल बीतते बीतते उसने चीनी,
भोटिया, मंगोल, मुसलमान, दुनिया ही पहचाना ।।
नेवार में भी भिन्न नेवार यमि को देखकर ।
बहुतों ने बुराई की उसे पागल कहकर ।।
जितना भी छोटा कहे उसको देखने वालों की नजÞर में ।
यमि अपना ज्ञान बढ़ाता चला गया जवाबी भाषा में ।।
१२
चौदह सौ वर्ष पूर्व की कहानी है यह ल्हासा की ।
श्रङ्चङ्गगम्पो वीर प्रतापी, पुरुषार्थी राजा की ।।
बल और साहस, बुद्धि से बनाया ल्हासा विराट ।
विकास करके बने वे ल्हासा के सम्राट ।।
नेपाली राजा अंशु वर्मा की सुपुत्री भृकुटी ।
चीनी पुत्री चुङ्लिङ्ग दोनों ही पत्नियाँ श्रङ्चङ्ग की ।।
साहित्य, कला, धर्म, संस्कृति, सभ्यता, संस्कार ।
ये ही बने कीमती दहेज, जिससे उन्नत हुए श्रङ्चङ्ग के विचार ।।
इन्हीं बातों को उन्होंने माना ल्हासा के लिए प्राण समान ।
परिणाम स्वरूप उछु में हुआ ल्हासा का निर्माण ।।
ज्ञानी और गुणी, लामा और भिक्षु का हुआ मिलन ।
चीन और ल्हासा, नेपाली शिल्प का करके मिश्रण ।।
दक्षिण की ओर रामाचे, मध्य में झोखाङ्ग विहार ।
निर्माण किया कला से पूर्ण दो सुंदर विहार ।।
चीन का बुद्ध भैषज्र्य को सौंपा रामाचे विहार ।
नेपाल का बुद्ध श्री शाक्य सिंह को झोखाङ्ग विहार ।।
उन दोनों को शास्त्र विधि विधान अनुसार ।
इन बौद्ध देशों में परिणत करने को दिया ल्हासा का संसार ।।
सम्राट श्रृंगचंगगम्पो ने अपनी सारी शक्ति लगाकर ।
स्थापित किया भारत से भी भिक्षु बुलाकर ।।
धीरे–धीरे गणतंत्र की तरपÞm बढ़ा ल्हासा का निर्माण ।
करने क्या लगा, आह ! हो गया श्रङ्चङ्गगम्पो का निर्वाण ।।
पिÞmर भी शेष है ल्हासा में श्रङ्चङ्ग का ही चलन–व्यवहार ।
मिटाने बिगाड़ने, विध्वंस करने को दुर्जन थे तैयार ।।
मक्खी की तरह संकीर्ण हृदय वाले अभी भी हैं ल्हासा में ।
इसीलिए अभी भी अभाव खटकता नए साहित्य कला में ।।
१३
होने को तो है ही बिजÞली बत्ती डाका तार सारी ।
पर वही है यहाँ शिक्षा की व्यवस्था पुरानी ।।
पिÞmर भी नहीं हैं असभ्य ये, न तो असंस्कृत ही ।
अंकित हैं संपूर्ण बौद्ध ग्रंथ भोटिया भाषा में ही ।।
श्री अश्वघोष, श्री कालिदास और अन्यों की सृजना ।
श्री नागार्जुन, श्री धर्मकीर्ति जैसों की विवेचना ।।
भारत चीन जैसे अनेकों देश मंगोल नेपाल ।
वे दार्शनिक ज्ञान में सागर से भी विशाल ।।
अमूल्य उनके ग्रंथों का भी इसी में है सार ।
इसीलिए बना ल्हासा, नेपाल और भारत कला का भंडार ।।
मौलिक काव्य व महाकाव्य और राजनीतिक ।
हैं सामाजिक साहित्य और वांग्मय धार्मिक ।।
हजÞारों वर्ष बीते पिÞmर भी नेपाली का अति पिछड़ा व्यापार ।
संकीर्ण इतनी बुद्धि है इनकी, कपटी इनके संसार ।।
अपना और अपने सगे भोटिया संतानों की ।
सद्भाव इनमें क्यों नहीं है, करने की उन्नति ।।
भोटिया की शिक्षा, प्रथा है अच्छी भले हो पुरानी ।
भेद–भाव नहीं है इनमें, चाहे नर हो या नारी ।।
पति का जूठा खाना भाग्य है, नेपाली नारी का ।
ऐसी न होने का कारण भी यही है, भोटिनी का ।।
तृतीय सर्ग
प्रेम का उत्कर्ष
१४
बुद्ध का जन्म, बुद्धत्व प्राप्ति, बुद्ध का निर्वाण ।
वैशाख पूर्णिमा का दिन है आज पवित्र महान ।।
घर घर में चैत्य, मंदिर, गुंबा और विहार ।
छाई है सभी में असीम शांति, आनंद अपार ।।
उस दिन यमि जा रहा था अकेला लिङ्खोर की करने तलाश ।
‘पेलिङ्छे’ के नीचे मिल गई भोट–भोटिनी की भीड़–भाड़ ।।
उन्नीस वर्षीया हिसिला जैसे कमल खिला ।
इसी के घर की बगल में यमी की दुकान खुली ।।
यमि को देख छलका हो जैसे सुंदरता बिखराए ।
हिसि ने पूछा, “ए यमि भैया लिङ्खोर क्यों आए ?”
हठात् जैसे कुछ हुआ अनायास, यमि देखता रहा यंत्रवत् ।
जैसे आज की ही पूर्णिमा की चाँदनी, उसके मन में हुई व्याप्त ।।
यमि ने पिÞmर देखा उसके चेहरे को हो एक बार हर्षित ।
गुमसुम ही प्रत्युत्तर दिया हँसकर, हो मन से पुलकित ।।
बीता हाँ बीता वह दिन भी बीता जैसे पल भर में ।
दुकान खोली यमि ने अगले दिन सदा की तरह क्षण भर में ।।
हिसिला ने भी खोली अपनी दुकान सदा की तरह सजाकर ।
हिसिला को देख पता नहीं क्यों यमि छुप गया लजाकर ।
१५
उस दिन से यमि का मन हुआ निश्चल निर्मल ।
धीरे धीरे होता गया दिल में खलबल ।।
ग्रीष्म ऋतु में पुष्पों से ढक गया लिंखावा मैदान ।
इसी काल में सब करते वहाँ वनभोज का इंतजÞाम ।।
यमि के महाजन ने भी किया अष्टमी की ही तिथि में ।
मनाया एक भव्य भोज सोखांग लिंखा में ।।
उसी लिंखा में भोज चला दो तीन दिन तक ।
दूसरी तरपÞm मना रहा था भोज हिसिला का दल ।।
वहीं अखरोट के वृक्ष के नीचे यमि को देखकर ।
हिसिला के पिता हिसिनोर्बु ने देखा उसे हँसकर ।।
बोले यूँ, “आप भी आए हैं इस मेले में ।”
ओ ! यमि भाई, आओ न चलें हमारे ही त्रिपाल में ।।
बिठाकर मोटी चटाई पर, सत्कार कर ।
पिलाई चाय, खिलाई तेनसेन रोटी क्रम मिलाकर ।।
धीरे–धीरे दोनों के बीच अनेक हुई बातचीत ।
क्रमशः एक दूसरे से हँसी मजÞाक बनी प्रीत ।।
बातों ही बातों में पेश हुआ चीनी तंबाकू ।
केसर जैसा हल्का नशा चढ़ाया सोयांग तंबाकू ।।
टेबुल के चारों ओर चारों बैठे मारकर पालती ।
माज्यांग खेलने वालों में एक थी हिसिला भी ।।
माज्यांग खेलते खेलते सब खुश होकर ।
पीते भी रहे बीच बीच में पीचा१ उठाकर ।।
“ए यमि भैया ! जीतना ही पड़ेगा कह जोश दिलाया ।
हिसिला खुद खेलती गई होश न गँवाया ।।
यमि की आँखें, यमि की बुद्धि हुई ढलमल ।
हार के कारण बना यमि का चेहरा नीला काजल ।।
१. शराब पीने वाला पत्थर का प्याला
१६
पराजित बेचारे यमि को चंचला हिसी ने ।
शब्द बाण से कर घायल पर भर दिया प्रीति से ।।
हिसि ने कहा, “शायद थोड़ी मात्रा अधिक हो गई कि ?
यमि हँसा, हृदय में शायद कुछ प्रवेश किया कि ?
यमि के मन में छटपटी हुई, ‘हो गया’ कहकर ।
गया वह घूमने साथी तास को साथ में लेकर ।
घूमते–पिÞmरते वे रुके उछु नदी के किनार ।
तासि ने पिÞmर सुनाई एक कविता सविस्तार ।।
अचानक पिÞmर बोला यमि होकर व्यग्र ।
चलें तासि, इमली के उस वृक्ष के तले ।।
अनेकों प्रजाति की चिडि़यों के गीत सुनने में आए ।
धीरे–धीरे पिÞmर मधुर गीत कानों में गुंजित हुए ।
“सेम्की केछा सेम्ला स्यास्योग् छिला त्वन्ने घाँचोंग ।
जिग्तेन्ला योरे मिमांग्पो माछोग् सुई सेम्सुकाँ सिंग्पोंग ।।”
(मन की बातें मन में ही रखो, अभिव्यक्त न करो ।
अनेक तरह के लोग हैं, किसकी कौन समझता है यहाँ ।।)
इस गीत के लय, भाव ने उसे इतना नचाया ।
कभी उसे कवि, कभी दार्शनिक तो कभी लामा बनाया ।।
भ्रम हुआ उसे जैसे हिसिला ही गा रही हो ।
लगा उसे जैसे हिसिला ही आगे आ रही हो ।।
“हिसिला !” कहकर चिल्लाया, यमि उठा अचानक ।
यमि भूल चुका कहाँ है वह इस वक्त ।।
आश्चर्य से तासि ने पूछा, “क्या हुआ ?” कहकर ।
‘कुछ नहीं हुआ’ यमि ने कहा धीरे से बैठकर ।।
१७
तासि को लगा यमि अपना दिल है कहीं भूल आया ।
पिÞmर रचकर एक गीत उसने सुनाया ।।
पिÞmर भी यमि का मन स्थिर नहीं, ना ही यमि का विचार ।
तासि के साथ धीरे–धीरे चला वह नदी के किनार ।।
नदी के किनार हिसिला गीत गाती आ रही ।
यमि को देख झाड़ी में छुप गई, वह शरमा रही ।।
बादल के अंदर छुप चाँद अंतर्धान होता है जैसे ।
यमि के लिए हिसिला भी हुई बिलकुल वैसे ।।
हिसिला भागी उठाकर भारी भरकम लहंगा ।
उठा हठात् ज्वार बनके यमि का मन गंगा ।।
उसी वक्त ‘ए यमि !’ बुलाया चौंकाकर ।
ज्ञान सुंदर नामक चिल्लाया अचानक आकर ।।
यमि पूजने लगा उसे रात में और दिन में ।
हिसिला को सजाकर अपने मन–मंदिर में ।।
कभी उत्सुकता, दुविधा, कभी अनवरत सिसकी लिया ।
पूजा का फल यमि को हिसि ने यही दिया ।।
पल–पल में यमि के मन को हिलाया भूmले की तरह ।
लड़ाकर जाती नजÞरें हठात् आगे आकर ।।
शर्मीला रूप दिखा अपना, क्षण में छलकर ।
गुमसुम चली जाती हिसिला बहुत कुछ बोलकर ।।
आँखों के आगे, मन के अंदर, हिसिला जहाँ भी ।
यमि का दिल टुकड़ा–टुकड़ा हुआ ठेहा से अधिक ।।
सोना वह चाहता पर लगती न नींद, न भूख ही लगती ।
इसी रोग से उसके मन की आदत गई बिगड़ती ।।
१८
जाने को जी चाहता प्रेमी के घर मन में है डर ।
मुलाकात में दोनों बोल न पाते, बन जाते दर्शक ।।
दिन–प्रति–दिन यमि का जीर्ण शरीर देखकर ।
सब लोग पूछते ‘क्या हुआ यमि, क्या हुआ’ कहकर ।।
यमि का रोग क्या है सच में, भीतर ही गड़ा है ।
वह रोग समझने वाला एक मात्र तासि है ।।
तासि ने एक दिन कहा यमि की दुर्दशा देखकर ।
“हिसिला को छोड़ो, भला इसी में है” मेरी बात मानकर ।।
यदि यह मानना मुश्किल है तो सुनो अच्छी राय ।
हिसि का भी मन तुम्हारी तरह है या नहीं, कर लो तय ।।
यह भी पिÞmर समझो कैसे हैं हिसिला के पिता ।
वो भी अपनी बेटी तुम्हें देंगे या नहीं, क्या करूँ मैं वार्ता ?
स्वतंत्र क्या हो सकते तुम, अभी तो हो नौकर ।
किसने किया विवाह यहाँ बनकर शौहर ।।
यमि ! सुनो एक कहानी, बस कुछ दिन पहले की ।
‘बा दाजु’ व्यक्ति ने व्याही यहाँ एक भोटिनी ।।
दूसरे ही दिन महाजन ने उससे एक कागज लिखवाया ।
हानि–नुकसान बावत उसने उसका सर्वस्व हरण करवाया ।।
पिता–माता, बंधु–बांधव, मित्र, सहृदयी ।
सब त्यागकर वह आया, पर महाजन निकला निर्दयी ।।
आठ–आठ साल सेवा करता रहा लगातार ।
पर यातना देने वाले दुर्जन महाजन का न रहा पारावार ।।
राह खर्च महज देकर निकाला इज्ÞजÞत लेकर ।
नेपाल वापस लौटाया उसे, क्षति यातना देकर ।।
यमि ने जोड़ा, “ये बातें तासि मैं जानता ।”
किसी किसी का अन्याय करना ही है प्रथा ।।
बंजारों में भी यदि है कोई लायक अद्भुत कमाल ।
उसे महाजन जाने ही नहीं देता कभी नेपाल ।।
१९
धूर्त होने के कारण छल कपट करते हैं हजÞार ।
महाजन के कारण बरबाद हो जाते हैं बेचारे बंजार ।।
हिसिला सिपर्Þm यदि करे मुझको स्वीकार ।
कह देना तासि मैं न बनूँगा महाजन का बंजार ।।
प्रेम में बाधा बनने वाला महाजन नहीं, यदि महाजन है तो भी ।
इनकी पूँछ मैं नहीं बनने वाला, यदि मेरे प्राण जाए तो भी ।।
भोटिया वर्णमाला पढ़ रहा मैं, शीघ्र सीख जाऊँगा ।
हिसि के आगे अपनी छाती खोल दिखाऊँगा ।।
यमि के दिल में आलोकित होने लगी आशा की किरण ।
तासि भी समझा गया, “न छोड़ना धीरज” ।।
तासि मिला हिसिनोर्बु से भनासो के करीब ।
विनम्र होकर भूमिका बाँधी आकर उसके नजÞदीक ।।
हिसिला यमि जवान दोनों युवा और युवती ।
आँखें लड़ीं एक दूजे से, बस गई मन में प्रीति ।।
यमि का मन ही हिसिला हुआ, साँस साँस में हिसिला ।
पागल बना यमि चारों तरपÞm देखता केवल हिसिला ।।
हिसिला बिना जीवन ही नहीं, नहीं यमि का जीवन ।
प्रार्थना है भाई, ऐ हिसिनोर्बु ! कर लो धीर मनन ।।
तासि की बातें हिसिनोर्बु ने ध्यान से सुनी ।
पिÞmर उसने कहा, “करुणा तो मेरे मन में भी जगी ।।”
यदि बिटिया को ही पसंद तो बस आगे मेरा क्या कहना ।
इतना ही बस कहना, धोखा न दे वो, बरबाद न जीवन करना ।।
हिसिनोर्बु की बातें सुनकर, खुशी से पूmलकर ।
विदा हुआ तासि, “ऐ नोर्बु भैया, सदा तुम्हारी जय हो कहकर ।।”
२०
पेचिंग ग्यामी की दुकान से निकली हिसिला छमछम ।
देखकर बढ़ाया तासि ने शीघ्र उधर अपना कदम ।।
मिलते पूछा— कटोरा खरीदने आई क्या हिसिला ?
हिसि ने कहा, “हाँ तासि भैया ! पर तुम कहाँ हो गए लापता ?”
तासि के साथ दुकान पहुँच आलमारी खोलकर ।
सजाए भीतर कटोरा, पिÞmर दोनों बैठकर ।।
चोग्ये पर चाय और तेनसेन रोटी रखी,‘लो खाओ’ कहकर ।
खाते–पीते, बातें करते, दोनों बातों में बहकर ।।
हिसिला ने कहा, “हमारा दिल दर्पण सदृश बनाकर ।”
हँसी–खुशी के खेल जैसा जीवन ही व्यतीत कर ।।
तन और मन मनोरंजन, तृप्ति से भरकर ।
दुख और सुख, वियोग सारा निर्मूल कर ।।
कविता लिखूँ, गीत में बहूँ, भरके भावना ।
ऐसी ही थी मेरे मन में अनेक कामना ।।
बाहर गोचर नहीं हुआ है अभी ये फूल खिलकर ।
बोलो न बोलो ऐ तासि भैया ! क्यों आए इतनी देर कर?
मनुष्य का जन्म बुलबुला भाँति, यदि शराब है असल ।
उतना ही ज्Þयादा रहता है बुलबुला अटल ।।
इसी हेतु प्रार्थना है, कभी कभार भी तो आकर ।
पल भर ही सही, कर लो दो बातें मुस्कुराकर ।।
सुंदरी तो तुम, ऐसे ही हो हिसिला बहन ।
जगा देने वह सुंदरता मात्र आया मैं मगन ।।
२१
तुम्हारे पास क्या नहीं आता यमि दिल दिखाने को ?
तुम हो पूर्णिमा वह अमावस्या यह तो बता दो ।।
मैं दूत बन जाऊँगा आज मेरी ये बातें सुन लो ।
अर्पण कर अपना जीवन तुम उसका मन रख दो ।।
यमि के मन में सुनो हिसिला इतना है भूचाल ।
जीर्ण हो गया उसका शरीर बना है कंकाल ।।
कहते कहते भर गया गला तासि का ।
मन में करुणा जगी सुनकर हिसि का ।।
बोलते बोलते रुदन करते तासि का हाल देखकर ।
हिसिला भी रो पड़ी हाथों से आँखें छुपाकर ।।
हिसिला तासि दोनों पड़ गए बपÞर्mीली आँधी की चपेट में ।
कापÞmी देर तक वह रोते रहे कह दर्द जो था दिल में
उसी वक्त एक अति चंचल कुत्ता आया ।
लोटपोट कर हिसि की गोद में बैठा ।।
कुत्ते के गालों को चूमा प्रेम से पकड़कर ।
‘हाय ! ज्यू’ कहते हुए सहलाया उसे जÞोर से दबाकर ।।
हृदय का प्रेम आँसू बनकर गालों पर आया ।
भरे गालों पर अटके हुए आँसू को कुत्ते ने चाटा ।।
रत्न जडि़त अंगूठी से युक्त नरम हाथों से ।
कुत्ते को सहलाकर कहा हिसि ने ।।
प्रश्न तुम्हारा सुनना ही मुझको भारी पड़ा ।
उत्तर देना उससे भी और भारी पड़ा ।।
२२
तासि ने कहा— “प्रार्थना है अति हिसिला अपार ।
तासि की हालत देखने लायक नहीं, करो विचार ।।
यमि सीधा सादा है, उसे न बनाओ अनाथ ।
करुणापूर्ण उद्गार से दे दो उसका साथ” ।।
तासि ने कहा धीरे से उठ— “हो चुकी है देर” ।
हिसि बोली— “आते रहना भैया देर सवेर” ।।
बेचारा यमि आस लगाकर बैठा होगा सोचकर ।
तासि बढ़ा यमि के घर उत्सुक होकर ।।
यमि का निराश चेहरा चमका तासि को देखकर ।
उसने कहा— “आओ, इस मन को समझा दो पूरी तरह ।।
लक्षण शुभ दिखता है यमि मत करो हड़बड़ ।
पिता ने माना, बेटी ने भी नहीं किया इनकार ।।
यमि के दिल में छाया हुआ अमावस का काला ।
सुनते ही उदित हुआ अहा ! अद्वितीय उजाला ।।
चतुर्थ सर्ग
ल्हासा की वाणी
२३
भोटे भोटिनी जो भी मिला जिज्ञासु होकर ।
सीखना वह चाहा मन लगाकर तिब्बती अक्षर ।।
पिÞmर यमि हिसिला को सुनाने को सोचकर ।
ध्यान से बैठा रहा गीत ‘पक्षी’ शीर्षक रखकर ।।
उसी समय दौड़ आया तासि पÞmटापÞmट ।
स्वाम्फ्यँ१ से किया हिसाब उसने खटाखट ।।
“ए यमि !” कहते उत्सुकता से सुनाया तासि ने ।
“सुनो ! आज बुलाई है मुझको हिसिला ।।
कुछ कहना या कुछ पूछना है तो मुझे बताओ ।
उसकी इच्छा हुई तो अपना भला ही समझो” ।।
सुन बातें उत्सुक होकर बगल में दबाकर कागजÞ ।
निकालकर गीत दिखाया, मैंने रचा है इसे आज ।।
अच्छा है या नहीं, होगा या नहीं, पढ़कर बता दो ।
कविता अच्छी है तो इसे हिसि के हाथों में पकड़ा दो ।।
पढ़कर पूरा गद्गद् होकर तासि ने कहा ।
नेपाली होकर भोटे भाषा में इतना सुंदर गीत लिखा ?
धन्य है यमि ! ऐसे ही और भी लिखो कहकर ।
जाता हूँ अभी हिसि के घर यह गीत लेकर ।।
गोर्मा और चप्पा दिन का भोजन कर रही थी हिसी ।
अचानक किबाड़ खटखटाने की आवाजÞ से वह चौंकी ।
१. हिसाब करने वाला यंत्र
२४
तासि को देख हर्षित होकर हिसि ने बुलाया ।
उसके लिए भी भोजन परोसकर प्रसंग चलाया ।।
यहीं आए थे या कहीं और, ए भैया बोलो न ।
नहीं तो गीत गाती हूँ, तुम सुनो न ।।
तुम्हारे ही पास आया मैं, लो गीत सुनाओ ।
यूँ कहकर नाक में नस सुँघा हँसकर वो ।।
खिलता यौवन उस पर हल्की लज्जा से शोभित ।
कोकिल कंठी स्वर में गाई हिसि ने यह गीत ।।
शिशिर गया, वसंत गया, वर्षा की बहार ।
लाने के लिए बादल आया हर्षित चेहरा लेकर ।।
बादल के अनेक रूप और रंग भाव का आकार ।
जो सही दृश्य उतार सके, जो सही चित्र खींच सके, वे ही हैं कवि कलाकार ।।
आँखों का दृश्य उतार सकूँ वो कलाकार नहीं मैं ।
मन के भाव उतार सकूँ वो कवि भी नहीं मैं ।।
पर इस कला–साहित्य को ईश्वर समझकर ।
कब पूज पाऊँगा उसे मन में ही रखकर ।।
साहित्य कला संयुक्त तुम्हारा हृदय विहार ।
निर्माण करने हेतु हर संभव करने को तैयार ।।
“इसलिए उपाय मैं बताता हूँ हिसि मैं” कहकर ।
तासि ने ‘पक्षी’ कविता निकाली और सुनाई पढ़कर ।।
मैं अकिंचन पक्षी हूँ मेरा वीराना देश ।
शरण देने वाला न कोई मेरा लाचार परिवेश ।।
२५
पिÞmर भी मन में आस सँजोए मैं जीवित हूँ ।
शरण मिलने के विश्वास में मैं स्थित हूँ ।।
किसी के मन में भी न देख आशा की किरण ।
पिÞmर भी विश्वास है सबका मन न होता बालू–सा निष्प्राण ।।
ऐ पवित्र मन की ल्हासा–हृदय लाख वंदना है तुझे ।
अनाथ प्राणी समझकर दया करना मुझे ।।
कैसे मैं लौटूँ भीगा पंख आशा के जल से ।
छटपटाहट बढ़ती गई मेरी तुम्हारी चुलबुली आदत से ।।
यहाँ आकर क्या बना या क्या बिगड़ा, इस बारे में क्या कहूँ मैं ।
बना कहूँ तो पागल ही बना, न तो मैं बिगड़ा ही ।।
दूसरे का नौकर बनना पड़ा अनेक दुख सहकर ।
तुम्हें मैंने प्राण ही समझा जीवन अर्पण कर ।।
यह बात यदि तुम नहीं समझी, मेरा मन पंछी उड़ जाएगा ।
तुम्हारे देखते ही देखते मेरी लाश गिद्ध पक्षी खा जाएँगे ।।
ल्हासा की तुम, विशाल हृदय की, संकीर्ण न बनो ।
कुचलकर वरना मर जाएगा यह पक्षी, मेरी प्रार्थना यह जÞरूर सुनो ।।
सुनते–सुनते ऐसे ही ऐसे अति विह्वल हो चला वह ।
कविता के साथ हिसि का मन अति पिघल गया ।।
बोलो न बोलो ऐ तासि भैया, कौन है यह कवि ।
बताकर सच्चाई, मेरे मन में भर दो न अपूर्व छवि ।।
क्यों अभी भी अंजान बनती हो तुम ऐसे ।
तुम्हारे लिए ही तो लिखा है बेहाल होकर यमि ने ऐसे ।।
२६
दुर्दशा यमि की सुन धीरे से हिसिला ।
झुककर बंद की अपनी आँखें सुंदर ।।
वेदना समझने वाली निशानी आँसू मन से मन के ।
इसलिए निकले आँसू देखो धीरे से हिसि के ।।
मूर्ति सदृश बनी है हिसिला हवा चलती सर सर ।
ललाट पर काले बालों की एक लड़ी उड़ती फर फर ।।
हिसिला की यह मनोदशा देख ना सका ।
तासि का लोहे जैसा मन भी पिघला ।।
उसी वक्त ‘निमाला’ एकाएक भीतर घुसकर ।
क्या है यह ? पूछते, दोनों निस्तब्ध होकर ।।
नहीं, कुछ नहीं ! निमाला दीदी, बैठिए कहकर ।
बिठाकर पोछे आँसू हिसि ने, धीरे से छुपकर ।।
शंकालु बन निमाला बोली, “छुपाओ मत हिसिला।
मुझे तो कुछ गंध यहाँ मिल रही, दूसरा ही है कुछ मामला ।।
बोलो न बोलो, क्यों ऐ हिसि, डूबकर भाव में ।
कर रही हो बातें, गिराकर आँसू, तासि के साथ में ।।”
निमाला की ये बातें सुनकर पेचीदी ।
तासि ने कहा, “न बनो अंजान निमाला ।।”
“बस करो अब ये बातें”, तासि के मुख पर आँखें गड़ाकर ।
निमाला ने पूछा, “कुछ है नया क्या ? गंभीर होकर ।।
चाय के बर्तन सहित आई हिसिला धीरे से ।
तीनों कटोरे में भरती गई चाय एक सिरे से ।।
तीनों की बातें चलती रहीं साथ में खान–पान भी ।
और भी लाकर देती गई, ना ना कहने पर भी ।।
२७
क्यों ना ना कहना, यह तो खाने का ही वक्त है ।
रसोइया ने बनाया आज, इसलिए यह सब खाने को मिला है ।।
कहते हुए धाःपेन१ में क्वाटी२ कयः३ में फिङ्४ स्येस्र्या५ डालकर ।
स्वयांलबु६ और हरी साग थाल में रखकर ।।
नमक, मिर्च, मसाला आदि खट्टे चूर्ण की तश्तरी ।
जाने से पहले रसोइया ने धाःपेन में दो दो च्यापिस्टिक डाल दी ।।
स्वादिष्ट खाना खाते पीते, खूब बातें करते ।
हुक्का पिया तीनों ने, पिÞmर मजे में भूmमते ।।
तासि ने भूमिका बाँधी, “सुनो ऐ निमाला ।
दोनों में बराबर है साहित्य और कला ।।
दोनों में पवित्र अनुराग, प्रेम किसका नहीं है ।
दोनों जोड़ी का मिलन होना, क्या अच्छा नहीं है ?”
कहता है तासि पिÞmर हिसि का चेहरा देखकर ।
विलंब क्यों है जवाब देने में करुणापूर्ण होकर ।।
इनकार करते किंतु निमाला बोली, “क्या ऐसा होता है ?
होने वाली बातें करो तासि, हम नाबालिग तो नहीं हैं ?”
“क्यों नहीं होगा ? प्रेम हुआ है,” तासि तो झिड़का ।
“कैसे होगा ? प्रेम कहते ही,” निमाला का स्वर भड़का ।।
“असंभव क्या है ? बोलो मुझे”, क्यों नहीं होगा ?
“यमि को बेहाल देख क्या करुण भाव न उपजेगा ?”
तासि का स्वर कड़ा होने पर भी, क्रोध न करते हुए ।
सहज तरीके से निमाला बोली विनम्र होकर इस तरह ।।
१. सब्जÞी खाने का कटोरा, २. ३. कटोरा, ४.हरा मटर पीसकर बनाई गई रोटी, ५तिब्बती मशरूम, ६. मूली का एक विशेष प्रकार का खट्टा अचार, ७. खट्टा चू
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भाव, प्रेम करुणा करना मानव का धर्म है ।
धर्म कहना ही, समझना है, प्राणी का मर्म है ।।
हिसि और यमि में यदि हो गया प्रेम अपार ।
पिÞmर भी मिलन होने के लिए क्या है आधार ?
आधार ही क्यों चाहिए ? प्रेम ही है मूल गुण ।
निमाला, तुम ही बोलो, यमि में ऐसा क्या है दुर्गुण?
वे ही हैं जिनके प्रेम में उलझकर ।
ल्हासा की कितनी बेटियाँ चली गईं दुख में जलकर ।।
“इसीलिए यह तो होगा ही नहीं” उठाकर कटोरा ।
निमाला बोली, तासि को लगा भारी हथौड़ा ।।
कहता है तासि हाथ की सभी उंगली एक समान नहीं ।
करती हो क्यों ऐसी बातें निमाला यह बात समझती क्यों नहीं ?
निमाला बोली, “कदापि यह बात होगी ही नहीं ।
पिÞmर भी सोचने का वक्त हिसिला को दो ही ।।
हाँ, यही हमारे मन की बात, मन से मिला दें ।
दोनों को विनय हिसि ने किया, “मुझे सोचने दें” ।।
इतना ही आज के लिए, पिÞmर मिलेंगे कहकर ।
निमाला, तासि अपने घर चले वहाँ से निकलकर ।।
कुछ दिन बाद यमि गया तासि के घर ।
सत्कार कर अतिथि को बिठाया कुर्सी पर ।।
यमि ने पिÞmर धीरे से पूछा, “क्या बातें हुईं बताओ” ।
तासि ने भी सांत्वना दी, “मत हड़बड़ाओ” ।।
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थोड़ी देर भाँति भाँति बातें करके ।
“परसों मिलेंगे” कह यमि गया लौट के ।।
रात आाई पर नींद नहीं आई, भावना उफन पड़ी ।
यमि की काँपी भर पिÞmर कविता बरस पड़ी ।।
तासि तो दूसरे ही दिन आया यमि की दुकान ।
यमि ने पूछा, बोलो तासि, कुछ है क्या अच्छा फरमान ?
इंतजÞार किए बिना ही यमि ने उत्सुक होकर ।
बगल में दबाई कविता निकाली, ‘चंद्रमा’ शीर्षक ।।
कविता पढ़ तासि तो मन ही मन खुश हुआ ।
यमि का मन–कमल तो ऐसे ही खिल गया ।।
खुश होकर तासि यमि के घर से लौटते हुए ।
देखा हिसिला को विहार में दीया जलाते हुए ।।
“ऐ हिसि !” कहते, और बातों में भूलकर ।
स्वयं खिंचता चला गया वह हिसि की दुकान पर ।।
“पÞmुर्सत नहीं है आज मुझे जाता हूँ” कहकर ।
धीरे से हिसिला को कविता देकर ।।
गहराई से पढ़ना, इसके भाव अच्छी तरह समझकर ।
मन में ही सोचकर “जवाब देना हिसिला” कहकर ।।
समझाकर हिसि के मन को मोम सदृश पिघलाकर ।
तासि पिÞmर भाकोर की तरपÞm चला हड़बड़ाकर ।।
धीरे से किबाड़ बंद कर, पिÞmर बिस्तर पर लेटकर ।
हिसि ने पढ़ी कविता, मन को काबू में रखकर ।।
“चंद्रमा तुम शर्माकर छुप गए तो होगा अंधेरा ।
बिन माँगे ही मिलने लगा मुझे मेरा उजाला ।।
नाराज हुए तुम या घमंडी बने या डर गए या क्या ?
खिलने से पहले ही नीलकमल यह, आह !मुर्झाने लगा ।।
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रोऊँ या मरुँ जैसा हो गया हूँ मैं, तुम मुझसे छुपकर ।
ऐ चंद्रमा ! मेरा मन रख दो मुझे समझकर ।।
चलो हम चलें उस जगह, ऐ चंद्रमा निवेदन है ।
जहाँ हम नीलकमल खिलाएँ और मुस्कुराए्ँ, निवेदन है ।।
मन की व्यग्रता, विरक्ति मिटाकर मन के विरह ।
बड़ा और छोटा समझ होते हैंं युद्ध और कलह ।।
मदांध हो गैरजिम्मेदारी अन्याय अकीर्ति ।
मिटाकर सब प्रपंच, वह सेखी और पूmर्ति ।।
प्रेम भाव से सुख शांति से स्वर्ग ही हो वह स्थान ।
न हो वैसा तो हम ही बनाएँ ऐसा एक स्थल ।।
तुम और हम चलें दोनों, उस स्वर्ग में जाएँ ।
दोनों मिलकर गाएँ एक ही गीत, आओ हम रम जाएँ ।।
भेंट होने पर भी बातें न कर पाने की संकीर्ण व्यवस्था ।
मिलकर भी दोनोंं के मन रोते रहने की अवस्था ।।
अव्यवस्था संपूर्ण बहारकर ले जाए यह गीत सारा ।
यह धर्ती बने हरी भरी प्रेम का सहारा ।।
चंद्र उदित, कमल प्रस्फुटित, हँसा यह संसार ।
चंद्र डूबा, कमल रोया, रोया यह संसार” ।।
बार बार कई बार पढ़कर कविता ।
हिसि की आँखें भर भर आईं बही आँसू की सरिता ।।
यमि, निमाला, हिसि तीनों की जानकर भावना ।
हिसि ने खोजना चाहा देखो, नई विचार सृजना ।।
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विचार जितना ही करती जाती, उतना ही उलझती जाती ।
डबडबाई हिसि की आँखों से आँसू की बूँदें बहती जाती ।।
प्रश्नों के विशाल पहाड़ से दबी पीड़ा से वह चिल्लाई ।
असह्य होकर पीड़ा, मुँह में शराब की बोतल लगाई ।।
थोड़ी ही देर में नशे में उसने दिवाल पर देखा ।
वहाँ तो ओह ! फ्रेम के अंंदर उसने निमाला को देखा ।।
हिसि के अंदर निमाला की ही गूँज उठी भावना ।
इसके आगे धूमिल बनी दोनों की अंतर्वेदना ।।
हिसि के अंदर दीप सदृश जली निमाला की मनोभावना ।
दृढ़ बनकर पिÞmर हिसि ने दिया जवाब ।।
प्रणाम है ऐ यमि ! अंदर का विवेक जगाओ ।
पवित्र मन से मुझ बहन पर आशीष के हाथ बढ़ाओ ।।
तुमने ही सिपर्Þm मुझे कहाँ प्यार है किया ।
मैंने भी तुम्हें उतना ही प्यार है दिया ।।
तुम्हारे हमारे बीच जो है गहरी प्रीति ।
भाई बहन का ही यह प्रेम हो, मेरी है विनती ।।
ऐ भैया ! मैं तो तुम्हें देव सदृश ही मानती हूँ ।
क्रोध न करना आज इसका कारण मैं लिखती हूँ ।।
तुम लोग जो आते हो सब कमाने को ही धन ।
आखिर जाते हो नेपाल ही कमाकर धन ।।
कोई कोई ही हमारे साथ रहते हैं, मन लगने पर ।
एक दिन वो भी चले जाते हैं, हम सबको घर का न घाट का कर ।।
थोड़ा–बहुत धन देकर भी जाते हैं कोई कोई ।
संपूर्ण समेटकर ले जाते हैं उल्टे भी कोई ।।
सुनो पिÞmर होती है कैसे हम सबकी दुर्गति ।
बेटा जनमा तो गोर्खा वासी, बच्ची खोमाखोती१ ।।
बेटी जनमी तो ल्हासा वासी, संपत्ति विहीन ।
चली जाती है जवानी और होता है याचक जीवन ।।
नेपाल में भी ले गए तो ‘छू जाएगा ऐ भोटिनी’ ।
कहकर नीचे दजर्Þे में रखते हो, कुत्ते से भी घटिया जीवन ।।
वैसे तो तुम लोग भी वहाँ हो अवहेलित ही ।
हिसिला हूँ मैं सब समझती ल्हासा में रहकर भी ।।
तुम सबों का स्वभाव ही है दबाना और दबना ।
शक्ति खोकर चूहा भी होकर बाघ सदृश बनना ।।
ऐ यमि भैया ! यह भी सुनो, स्पष्ट मेरे वचन ।
शपथ लेकर सच में तुम्हारी बनती हूँ बहन ।।
नोर्बुलिंखा को आड़ू के पेड़ अचानक छोड़कर ।
उड़ सकता हूँ कहते ही कैसे जा सकता है जुरेली२ उड़कर ।।
चिचि३ और तुतु चप्पा४ खिलाकर माँ ने बड़ा कर ।
लगाकर प्रेम क्या होगा बोलो कीचड़ में गिराकर ।।
गिरते पड़ते खेलते बैठी माँ की गोद में ।
चंचल बनती उस गोद से छूटी बनी चंद्रमा मैं ।
असमंजस में हर हमेशा पश्चाताप करके ।
धरती माँ के इर्दगिर्द देखो, वह घूम रही ।।
इसीलिए ऐ भैया ! समझो यदि यह सत्य है कथन ।
तुम और हम हो जाएँ अब सिपर्Þm भाई और बहन ।।
अनुनय है ओ यमि भैया ! कोटि कोटि है विनती ।
आभारी रहेगी यह हिसि तुम्हारी सदा गाती रहेगी कीर्ति ।।
१. नेपाली से जनमे बच्चों को अपमानि२. एक प्रकार की चिडि़या,
३. खाने वाला व्यंजन, ४. खाने वाला व्यंजनत करने के लिए बुलाए जाने वाले शब्द